दिन जुमेरात शहादत का महीना मोहर्रम से दो दिन पहले
मेरी ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा
जिस से शुरू हुआ मेरी ज़िंदगी का किस्सा
मेरे बाबा
मुझे वो दिन कभी याद करने की ज़रूरत नही।
क्योंकि जिसे भुलाया न जा सके वो कभी यादों का मोहताज नही होता।
उस दिन में स्कूल से घर आने के लिए रवाना हुई।। मेरे बाबा बीमारी से जूझ रहे थे। अस्पताल में वो अपनी ज़िंदगी के आखरी पल गुज़ार रहे थे।
यू तो में बाबा से मिलने स्कूल से आकर जाया करती थी लेकिन
उस दिन अजीब सा एहसास हुआ।मानो कोई मुझसे मेरी अज़ीज़ चीज़ छीन रहा हो।ओर में सीधे अस्पताल चली गयी। क़रीब एक घण्टा में बाबा के पास बैठी रही। फिर घर आने के लिए में उनके सिरहाने से उठ कर चलने के लिए तैयार होने लगी। में अभी खड़ी बाबा को निहार ही रही थी कि अम्मी के जान पहचान की दो औरते वहाँ आयी। अम्मी बाबा का हाथ थामे बैठी थी। शायद उन्हें आगाज़ हो रहा था। क्योंकि निकाह के बाद रूह से रूह का रिश्ता जुड़ जाता है।। बाबा भी अम्मी का हाथ छोड़ने को तैयार नही थे।। बाबा की तड़प ऐसी थी जो किसी से देखी नही जा रही थी। फिर उन दोनों औरतो ने नानी से कहा के अब इनका हाथ छुड़वा दीजिये।
क्या मंज़र था।।।में छोटी थी।।समझ नही पाई के वो ऐसा क्यों बोल रही हैं। अम्मी बाबा का ही तो हाथ पकड़े हुए है। किसी ओर का तो नही। लेकिन मेरी नानी समझ चुकी थी के वो ऐसा क्यों बोल रही हैं।।नानी ने अम्मी का हाथ बाबा के हाथ से छुड़ा दिया। बाबा को खून की उल्टी हुई और उनकी ज़िन्दगी की किताब हमेशा के लिए बन्द हो गयी। ओर वो औरतें कहने लगी मोहर्रम का महीना मुँह से खून आकर शहादत हुई है। बस सुनते ही अम्मी ज़ारो कतार रोने लगीं। में समझ ही नही पाई के क्या हुआ।उस एहसास को कैसे बयां करू के अब हम यतीम हो चुके है । तमाम कोशिशों ओर दुआओ के बावजूद बाबा को बचा न सके।। ज़िन्दगी का सबसे दर्दनाक हादसा जिसने हमारी ज़िंदगी बद से बदतर कर दी।
मेरी आँखों से वो मंज़र मिटायेगा कोन।
तसल्ली देने तो सब आयंगे साथ निभाने आयेगा कोन।
इन रोती आँखो को बाबा की तलाश है।
उन्हें लेकर भला आएगा कोन।
मेरी आँखों से वो मंज़र मिटायेगा कोन.....
हम बाबा को लेकर घर आ गए।
मेरे छोटे बहन भाई जो आस लगाए बैठे थे की बाबा कब आयंगे मानो उनकी आंखें पूछ रही हो की भेजा था बाबा को लाने।।हमेशा के लिए ले जाने के लिये क्यों लाए।
सबसे छोटा भाई तो इतना मासूम था कि उसे मालूम ही नही था बाबा का साया सिर से उठना क्या होता है।।
ज़िन्दगी की तड़प वक़्त का इम्तेहान
हम लोग बाबा को आखरी विदाई देकर आये।।
बहन भाई अम्मी खुद को संभाल नही पा रहे थे।
चाह कर भी सब्र नही आ रहा था।।सब गुमसुम बैठे थे।।लेकिन किसी को हमारे दर्द से क्या फर्क पड़ना था। कुछ लोग सिर्फ खाने के लिए ही आये थे।। मेरा छोटा भाई जो अभी सिर्फ 15 साल का था मुझसे गले लग कर रोने लगा।।कहने लगा बाहर चाचा ओर रिश्तेदार खाने में बोटियों को लेकर तंज़ कस रहे है।।कुछ आपस मे बाते बना रहे है।।और कुछ एक दूसरे की प्लेट से बोटियां उठा कर खा लड़ रहे है।।
उसकी बातें सुन कर मेरी आँखों से आंसुओ की लड़िया बहनी शुरू हो गयी।।में सोचने लगी ये लोग कैसे इंसान है। इनका दीन ईमान ज़मीर इंसानियत सब मर चुकी है। इनसे अच्छे तो जानवर है।।एक कोवा मर जाये तो सारे कौवे चीख चीख कर पूरे मोहल्ले को बता देते है कि देखो हम में से कोई एक आज दुनिया से चला गया।।ओर ये लोग खाने के ऊपर लड़ रहे है।।
वाह रे दुनिया किसी का सब कुछ छीन गया
तुम्हे इखट्टा मिल के हसने का मौका मिल गया
खेर वो लोग जब खा लड़ कर थक गए तो झूठे बर्तन के साथ झूठे रिश्ते भी वही छोड़ गए।। अब कुछ गिने चुने रिश्तेदारों के अलावा कोई हमारा हाल पूछने न आता। और हाल भी क्या पूछते के तुम्हे तुम्हारे बाबा याद आते हैं? में सोच में पड़ जाती के ये लोग कितना अजीब सवाल करते है ।एक बेटी से पूछते है कि उसका बाप याद आता है कि नही।वो बेटी अपने बाप को कैसे भूल सकती है जो मौत के वक़्त बाप के सिरहाने बैठी हेंड फैन से हल्के हल्के हवा दे रही हो।कभी उनके माथे पर आने वाले बालों को उंगलियों से परे हटाती हो साथ मे कुछ पढ़ कर उसके चेहरे पर फूकती जाती हो। अपने बाबा की चुप चाप नज़रे देर तक खुद पर महसूस करती हो। कुछ पल बस कुछ पल के लिये ही वो घर जाने के लिए मुड़ी हो और पीछे से आवाज़ आये देखो बाबा को क्या हो रहा है। ओर उसके देखते ही देखते लरज़ते होंटो से उसका बाप कलमा पढ़े।माँ चीख कर कहे कलमा पढो।।फटी फटी आंखों से वो कलमा पढ़े..ओर कलमा पढ़ते पढ़ते जिस्म का खून मुँह को आजाये... दर्द अपनी शिद्दत को हो ओर रूह पैरो की तरफ से जिस्म से निकलती महसूस हो। फिर कोई उसके बाबा की खुली रह जाने वाली आंखों को बंद कर दे।। फिर डॉक्टर के तसदीकी अल्फाज़ो को सुन ने के बाद भी बाबा को बेयक़ीनी से देखे ओर सब्र टूट जाय।
इतने दिन गुज़रने के बाद भी वो मंज़र मेरे दिल को चीरता है।में खुद को कोसती हु के पीछे क्यो मुड़ी में।बाबा ने शायद आवाज़ दी हो।मेने क्यो नही सुना। एक बेटी से कभी न पूछो के उसका बाप याद आता है या नही।।वो मुस्कुराती है खाती है पीती है,,ज़िन्दगी गुज़ार रही है तो इसका ये मतलब नही है कि वो अपने बाप को भूल गयी है। यार बेटियां भी अपने बाप को भूल सकती है ? और बाप भी वो जो सरापा ए इश्क़ हो।जो बेटी अपने बाप को अपने सामने मरता देखे वो तो हरगिज़ नही भूल सकती।।
मौत ने सिर्फ जिस्म को चुराया
रूह का साथ तो हमेशा रहेगा
लोगो को लगा हम भूल गए
ज़ालिम ज़माने से ज़रा सा दर्द क्या छुपाया
खुश नसीब होते है वो लोग जिनके अपने-अपने होते है। हमे तो किसी ने गले भी लगाया तो पीठ में ख़ंजर घोपने के लिये।
अभी बाबा को गए 40 दिन भी पूरे न हुए थे। हमारी आंखों के आंसू अभी ख़ुश्क भी न हुए थे कि ताया के लड़के जिस दादिलाई मकान में हम रहते थे उसे खाली कराने आ गए। सारे कसमे वादे रिश्ते नाते बाबा के साथ जा चुके थे। उन्हें डर था कि चाचा तो रहे नही।।कही ये यतीम बच्चे घर पर कब्ज़ा न कर लें।